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Rabi season

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसानों के द्वारा रबी के सीजन में मटर की बिजाई अक्टूबर माह से की जाने लगती है। आज हम आपको इसकी कुछ प्रमुख उन्नत किस्मों के विषय में जानकारी देने जा रहे हैं। किसान कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की किस्मों की बुवाई सितंबर माह के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर सकते हैं। इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। बतादें, कि इसमें काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, काशी उदय और काशी अगेती प्रमुख फसलें हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के दौरान पककर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत शीघ्रता से खाली हो जाता है। इसके पश्चात किसान सुगमता से दूसरी फसलों की बिजाई कर सकते हैं। किसान भाई कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की प्रजातियों की बुवाई सितंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर दी जाती है।

मटर की उन्नत किस्म

मटर की उन्नत किस्म काशी नंदिनी

इस किस्म को साल 2005 में विकसित किया गया था। इसकी खेती जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पंजाब में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर औसतन 110 से 120 क्विंटल तक पैदावार हांसिल की जा सकती है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी मुक्ति

यह किस्म मुख्य तौर पर झारखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार के लिए अनुकूल मानी जाती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 115 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल हो सकता है। इसकी फलियां और दाने काफी बड़े होते हैं। मुख्य बात यह है, कि इसकी विदेशों में भी काफी मांग रहती है।

मटर की उन्नत किस्म काशी अगेती

यह किस्म 50 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। बतादें, कि इसकी फलियां सीधी और गहरी होती हैं। इसके पौधों की लंबाई 58 से 61 सेंटीमीटर तक होती है। इसके 1 पौधे में 9 से 10 फलियां लग सकती हैं। इससे प्रति हेक्टेयर 95 से 100 क्विंटल तक का पैदावार प्राप्त हो सकता है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी उदय

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस प्रजाति को साल 2005 में तैयार किया गया था। इसकी खासियत यह है, कि इसकी फली की लंबाई 9 से 10 सेंटीमीटर तक होती है। इसकी खेती प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 105 क्विंटल तक की पैदावार मिल सकती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। इसमें काशी मुक्ति, काशी उदय, काशी अगेती और काशी नंदिनी प्रमुख हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के अंदर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत जल्दी खाली हो जाता है। इसके उपरांत किसान आसानी से दूसरी फसलों की बुवाई कर सकते हैं।
सरकार ने इस रबी सीजन के लिए 11.4 करोड़ टन का लक्ष्य निर्धारित किया है

सरकार ने इस रबी सीजन के लिए 11.4 करोड़ टन का लक्ष्य निर्धारित किया है

तूफान, ओलावृष्टि एवं अल नीनो जैसी खतरनाक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने जलवायु-प्रतिरोधी (गर्मी झेल सकने वाली) DBW 327 करण शिवानी, एचडी-3385 जैसी किस्मों की खेती करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस रबी सीजन में 11.4 करोड़ टन की रिकॉर्ड गेहूं पैदावार का लक्ष्य तय किया गया है। फसलों की पैदावार मिट्टी, मौसम, सिंचाई एवं बेहतरीन किस्म के बीजों पर आश्रित होती है। 

साथ ही, कभी-कभी मौसम की विषम परिस्थितियों की वजह से किसान की फसल की लागत तक भी नहीं निकल पाती है। किसान आर्थिक हालातों से खुद भी गुजरता है। साथ ही, उसका परिवार भी इन चुनौतियों का सामना करता है। ऐसी स्थिति में सरकार ने विषम परिस्थितियों को ध्यान में रख के एक लक्ष्य तय किया है। इस लक्ष्य के अंतर्गत गेहूं की बुवाई (Wheat Sowing) के समकुल क्षेत्रफल के 60 फीसद हिस्से में जलवायु-प्रतिरोधी DBW 327 करण शिवानी, एचडी-3385 एम.पी-3288, राज 4079, DBW-110, एच.डी.-2864, एच.डी.-2932 किस्मों की खेती का लक्ष्य तय किया गया है।

गेहूं की पैदावार का लक्ष्य निर्धारित किया गया है

केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को देखते हुए रबी सीजन में 11.4 करोड़ टन गेहूं उत्पादन का लक्ष्य तय किया है। वहीं, विगत वर्ष भी सरकार ने समान अवधि में गेहूं का उत्पादन 11.27 करोड़ टन का लक्ष्य रखा था।

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केंद्रीय कृषि सचिव मनोज आहूजा ने रणनीति तैयार की है

केंद्रीय कृषि सचिव मनोज आहूजा ने रबी फसलों की बुवाई की रणनीति पर चर्चा की है, जिसमें उन्होंने कहा है, कि जलवायु पारिस्थितिकी में आए दिन कुछ न कुछ परिवर्तन हो रहे हैं। इस वजह से फसलों में भी प्रभाव देखने को मिल रहा है, तो ऐसी स्थिति में रणनीति के मुताबिक जलवायु-प्रतिरोधी बीजों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 

गर्मी-प्रतिरोधी वाली किस्मों के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है

भारत में 800 से ज्यादा जलवायु-प्रतिरोधी किस्में मौजूद हैं। इन बीजों को ‘सीड रोलिंग’ योजना के अंतर्गत सीड चेन में डालने की आवश्यकता है। किसानों को गर्मी-प्रतिरोधी किस्में उगाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त समस्त राज्यों में विशिष्ट इलाकों को चिह्नित करके उत्पादित की जाने वाली अच्छी किस्मों को लेकर नक्शा तैयार करना चाहिए। किस्मों को बेहतर सोच समझ से चयन करना उत्पादन के लिए बेहद महत्वपूर्ण कारक है। किसानों को हमेशा अच्छी और जलवायु प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।

गेहूं फसल की कटाई करने वाली तीन बेहद सस्ती कटाई मशीन

गेहूं फसल की कटाई करने वाली तीन बेहद सस्ती कटाई मशीन

रबी की फसल कटाई का समय अब चरम सीमा पर चल रहा है। किसान भाइयों को अपने गेहूं की कटाई करवाने के लिए मजदूरों की उचित मूल्य और समय पर उपलब्धता में कमी आ रही है। 

ऐसे में गेहूं की फसल की कटाई के लिए किसानों के लिए हम कुछ ऐसी गेहूं कटाई करने वाली मशीनों की जानकारी लेकर आए हैं, जिससे कृषकों की यह समस्या आसानी से समाप्त हो सकती है। 

जी हाँ, किसान भाई इन मशीनों के उपयोग से गेहूं कटाई की लागत में कमी आने के साथ साथ फसल कटाई का कार्य समय से पूरा हो जाएगा। 

स्वचालित वर्टिकल कन्वेयर रीपर

स्वचालित वरटिकल कनवेयर रीपर फसल कटाई के लिए उपयोग में लायी जाने वाली एक इंजन संचालित मशीन है। इस मशीन को संचालित करने के लिए चालक को पीछे पैदल चलना पड़ता है। इस मशीन द्वारा अनाज एवं तिलहनी फसलों को काटकर एक कतार में व्यवस्थित रखा जा सकता है। 

इस स्वचालित वरटिकल कनवेयर रीपर मशीन में इंजन, शक्ति संचरण बॉक्स, कटाई पट्टी, फसल पंक्ति विभाजक, लग सहित कनवेयर पट्टी, स्टार पहिया और संचालन प्रणाली एक मजबूत फ्रेम पर लगे होते हैं। 

इसमें पट्टा व घिरनी के द्वारा इंजन की शक्ति; कटाई पट्टी और कनवेयर पट्टी को प्रेषित की जाती है।

रीपर को आगे चलाने के समय फसल पंक्ति विभाजक फसल को विभाजित करते हैं। साथ ही, फसल के तने कटाई पट्टी के संपर्क में आने पर कट जाती है। 

फसल को हाथों-हाथ गट्ठर बनाकर गहाई स्थान पर ले जाया जाता है। मशीन द्वारा काटी फसल का वहन खड़ी दिशा मे होने के कारण फसल के बिखेरने से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। 

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इस मशीन की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई तकरीबन 2450, 1200 और 1000 मिमी, क्रमशः होती है। इस मशीन का वजन तकरीबन 145 किग्रा तथा कटाई पट्टी की लंबाई एवं पिच 1000 एवं 75 मिमी क्रमशः होती है। 

इस मशीन का इस्तेमाल मुख्यतः गेहूं, धान, सोयाबीन तथा अन्य अनाज एवं तिलहन फसलों की कटाई के लिए अच्छा है। 

इस मशीन की कार्य क्षमता तकरीबन 0.15 हेक्ट./घंटा होती है। इस मशीन की ईधन खपत करीब 1 लीटर प्रति घंटा होती है। इस मशीन का अनुमानित मूल्य लगभग रुपये 85,000/- है।

बैठकर चलाने वाला स्वचालित रीपर

बतादें, कि बैठकर चलाने वाला स्वचालित रीपर एक स्वचालित मशीन है, जिस पर चालक के लिए सीट मुहैय्या कराई जाती है। इस मशीन में दो बड़े हवा युक्त पहिये लगे होते हैं। 

इसका संचालन पिछले धुरे से किया जाता है। इस मशीन को संचालित करने के लिए करीब 6 एचपी का डीजल इंजन लगा होता है। 

इस मशीन मे सुविधा के अनुरूप ब्रेक, क्लच और स्टेयरिंग द्रव्यचलित प्रणाली और शक्ति संप्रेषण प्रणाली लगी हुयी है। जो कि मशीन को सुगमता से चलाने मे सहयोग करती है। 

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इसमें फसल पंक्ति विभाजक, स्टार पहिया, कटाई पट्टी, कनवेयर पट्टी और वायर स्प्रिंग इत्यादि लगे हुए होते हैं। इस रीपर में दो आगे और एक पीछे चाल का प्रावधान है। 

इस मशीन द्वारा फसल काटने के पश्चात कनवेयर पट्टी द्वारा खींचकर मशीन के एक ओर पंक्ति मे डाल दी जाती है।

इस मशीन की लंबाई, चौड़ाई और उंचाई तकरीबन 3185, 1900 और 1450 मिमी क्रमशः होती है। मशीन का वजन करीब 1530 किग्रा होता है। 

वहीं, प्रचालन गति करीब 3.0 से 3.5 किमी/घंटा होती है। इस मशीन की क्षेत्र क्षमता 0.25 से 0.30 हेक्ट/घंटा तथा क्षेत्र कार्य कुशलता 60-70% तक होती है। 

इसमें इंधन की खपत 0.90 – 1.15 लीटर/घण्टा तथा फसल हानि 5.0 – 5.9 प्रतिशत होती है। इस मशीन का इस्तेमाल धान, गेहूं, सोयाबीन और अन्य अनाज एवं तिलहन फसलों की कटाई के लिए उपयुक्त है। इस मशीन की अनुमानित लागत तकरीबन 1,50,000/- रुपए है।

ट्रैक्टर चलित वरटिकल कनवेयर रीपर

यह एक ट्रेक्टर चलित कटाई उपकरण है। इस यंत्र को ट्रैक्टर के आगे लगाया जाता है और इसे ट्रैक्टर के पी.टी.ओ. द्वारा कपलिंग शाफ्ट एवं मध्यवर्ती शाफ्ट के जरिए से संचालित किया जाता है। 

जमीन के ऊपर मशीन की ऊंचाई घिरनी एवं स्टील रस्सी की मदद से ट्रैक्टर के हाइड्रोलिक द्वारा संचालित की जाती है। 

कत्तई पट्टी द्वारा फसल की कटाई के बाद फसल को लग्ड़ कनवेयर पट्टी की मदद से ऊर्ध्वाधर स्थिति में मशीन के एक तरफ ले जाया जाता है और कटी फसल मशीन की चलने की दिशा से अधोलंब दिशा मे एक कतार मे खेत पर गिर जाती है। 

बतादें, कि इस मशीन में 75 मि.मी. पिच का कटाई पट्टी असेम्बली, 7 फसल पंक्ति विभाजक, लग सहित 2 कनवेयर पट्टी, दबाव स्प्रिंग, घिरनी और पावर संचरण गियर बक्सा लगे होते हैं। 

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फसल पंक्ति विभाजक कटाई पट्टी असेम्बली के सामने फिट किए जाते हैं तथा स्टार पहिया फसल पंक्ति विभाजक के ऊपर लगे होते है। 

इस मशीन में 7 स्टार पहिया, जिनका व्यास 270 – 282 मि. मी. तथा 2000 – 2210 मि. मी. प्रभावी चौड़ाई की कटाई पट्टी होती है। 

इसमें 55 - 60 मि. मी. चौड़ाई की कनवेयर पट्टी, 118 -140 मि. मी. व्यास की घिरनी तथा 1600 – 2010 मि. मी. लंबाई का कटर बार लगा होता है। 

ट्रैक्टर चलित वरटिकल कनवेयर रीपर का इस्तेमाल गेहूं और धान की फसल को काटकर एक कतार मे भूमि पर रखने के लिए किया जाता है। इस मशीन का अनुमानित मूल्य करीब 55,000/- रुपए है।

कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

रबी का सीजन शुरू हो चुका है, सीजन के शुरू होने के साथ ही रबी की फसलों की बुवाई भी बड़ी मात्रा में शुरू हो चुकी है। इसलिए आज हम आपके लिए लेकर आए हैं सूरजमुखी या सूर्यमुखी (Sunflower) की खेती की सम्पूर्ण जानकारी ताकि किसान भाई इस बार रबी के सीजन में सूरजमुखी की खेती करके ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकें। अभी भारत में मांग के हिसाब से सूरजमुखी का उत्पादन नहीं होता है, इसलिए भारत सरकार को घरेलू आपूर्ति के लिए विदेशों से सूरजमुखी आयत करना पड़ता है, ताकि घरेलू मांग को पूरा किया जा सके। भारत में इसकी खेती सबसे पहले साल साल 1969 में उत्तराखंड के पंतनगर में की गई थी, जिसके बाद अच्छे परिणाम प्राप्त होने पर देश भर में इसकी खेती की जाने लगी। फिलहाल महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, आंधप्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा और पंजाब के किसान सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में हर साल लगभग 15 लाख हेक्टेयर पर सूरजमुखी की खेती की जाती है, साथ ही देश के किसान इसकी खेती से 90 लाख टन की पैदावार लेते हैं। अगर सूरजमुखी की खेती में औसत पैदावार की बात करें तो 1 हेक्टेयर में 7 क्विंटल सूरजमुखी के बीजों का उत्पादन होता है। सूरजमुखी एक तिलहनी फसल है, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इसकी खेती सर्दी के सीजन में की जाए तो अच्छी पैदावार निकाली जा सकती है।


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सूरजमुखी की खेती के लिए खेत की तैयारी कैसे करें

खेत तैयार करने से पहले मिट्टी की जांच अवश्य करवा लें, यदि खेत की मिट्टी ज्यादा अम्लीय या ज्यादा क्षारीय है तो उस जमीन में सूरजमुखी की खेती करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसके साथ ही विशेषज्ञों से उर्वरक के इस्तेमाल की सलाह जरूर लें ताकि जरुरत के हिसाब से खेत की मिट्टी में पर्याप्त उर्वरक इस्तेमाल किये जा सकें। खेत तैयार करते समय ध्यान रखें कि खेत से पानी की निकासी का सम्पूर्ण प्रबंध होना चाहिए। इसके बाद गहरी जुताई करें और खेत को समतल करके बुवाई के लिए तैयार कर लें।

सूरजमुखी की खेती के लिए बाजार में उपलब्ध उन्नत किस्में

ऐसे तो बाजार में सूरजमुखी के बीजों की कई किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन अधिक और अच्छी क्वालिटी की पैदावार के लिये किसान कंपोजिट और हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार की उन्नत किस्मों का इस्तेमाल करने पर सूरजमुखी की खेती 90 से 100 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है, और उसके बीजों में तेल का प्रतिशत भी 40 से 50 फीसदी के बीच होता है। अगर बेस्ट किस्मों की बात करें तो किसान भाई सूरजमुखी की बीएसएस-1, केबीएसएस-1, ज्वालामुखी, एमएसएफएच-19 और सूर्या किस्मों का चयन कर सकते हैं।


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सूरजमुखी की बुवाई कैसे करें

सूरजमुखी की बुवाई रबी सीजन की शुरुआत में की जाती है। अगर माह की बात करें तो अक्टूबर का तीसरा और चौथा सप्ताह इसके लिए बेहतर माना गया है। इसकी बुवाई से पहले बीजों का उपचार कर लें ताकि बुवाई के समय किसानों के पास बेस्ट किस्म के बीज उपलब्ध हों। सूरजमुखी के बीजों की बुवाई छिड़काव और कतार विधि दोनों से की जा सकती है। लेकिन भारत में कतार विधि, छिड़काव विधि की अपेक्षा बेहतर मानी गई है। कतार विधि का प्रयोग करने से खेती के प्रबंधन में आसानी रहती है। इसके लिए विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि लाइनों के बीच 4-5 सेमी और बीजों के बीच 25-30 सेमी का फासला रखना चाहिए।

सूरजमुखी की खेती में खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल कैसे करें

जैविक खाद एवं उर्वरक किसी भी खेती के उत्पादन को बढ़ाने के लिए बेहद जरूरी होते हैं। इसलिए सूरजमुखी की खेती में भी इन चीजों का उपयोग आवश्यकतानुसार किया जाता है। सूरजमुखी के बीजों का क्वालिटी प्रोडक्शन प्राप्त करने के लिए 6 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। इसके साथ विशेषज्ञ 130 से 160 किग्रा यूरिया, 375 किग्रा एसएसपी और 66 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।


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सूरजमुखी की खेती में सिंचाई किस प्रकार से करें

सुरजमुखी की खेती में सामान्य सिंचाई की दरकार होती है। इसकी खेती में 3 से 4 सिंचाईयां पर्याप्त होती हैं। इस खेती में यह सुनिश्चित करना बेहद अनिवार्य है कि खेत में नमी बनी रहे, ताकि पौधे बेहचर ढंग से पनप पाएं। सूरजमुखी की फसल में पहली सिंचाई 30-35 दिन के अंतराल में करनी होती है। इसके बाद हर तीसरे सप्ताह इस फसल में पानी देते रहें। इस फसल में फूल आने के बाद भी हल्की सिंचाई की दरकार होती है। यह एक फूल वाली खेती है इसलिए इसमें कीटों का हमला होना सामान्य बात है। इस फसल में एफिड्स, जैसिड्स, हरी सुंडी व हेड बोरर जैसे कीट तुरंत हमला बोलते हैं। जिससे सूरजमुखी के पौधों को रतुआ, डाउनी मिल्ड्यू, हेड राट, राइजोपस हेड राट जैसे रोग घेर लेते हैं। इसके अलावा इस खेती में पक्षियों का हमला भी आम बात है। फूलों में बीज आने के बाद पक्षी भी बीज चुन लेते हैं, ऐसे में किसानों को विशेषज्ञों से सलाह लेनी चाहिए ताकि वो इन परेशानियों से निपट पाएं। बुवाई के लगभग 100 दिनों बाद सूरजमुखी की खेती पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इसके फूल बड़े होकर पूरी तरह से पीले हो जाते है। फूलों की पंखुड़ियां झड़ने के बाद किसान इस खेती की कटाई कर सकते हैं। कटाई करने के बाद इन फूलों को 4 से 5 दिन तक तेज धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद मशीन की सहायता से या पीट-पीटकर फूलों के बीजों को अलग कर लिया जाता हैं। अगर पैदावार की बात करें तो अच्छी परिस्थियों में किसान भाई उन्नत किस्मों और आधुनिक खेती के साथ एक हेक्टेयर में 18 क्विंटल तक सूरजमुखी के बीजों की पैदावार ले सकते हैं। सामान्य परिस्थियों में यह पैदावार 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।


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हाल ही में भारत सरकार ने सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी कर दी है। इस लिहाज से अब सूरजमुखी की खेती करके किसान भाई पहले की अपेक्षा ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सरकार ने रबी सीजन के लिए सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 209 रूपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की है। इस हिसाब से अब किसान भाइयों के लिए सूरजमुखी के बीजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है।
पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

हम बात करने जा रहे हैं, किनोवा फसल के बारे में जिसको अनाज के तौर पर उगाया जाता है। किनोवा की फसल का जनक अमेरिका को माना जाता है। किनोवा के बीजों में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान रहते हैं। जिसका उपभोग करने से हार्ट अटैक, कैंसर, खून की कमी, सांस की बीमारियों में बेहद लाभकारी होता है। इस वजह से किनोवा की खेती भी अच्छी आय का स्त्रोत है। किनोवा को रबी सीजन की मुख्य नकदी फसल कहा जाता हैं, जिसका उत्पादन अक्टूबर से लेकर मार्च तक होता है। किनोवा पत्तेदार सब्जी बथुआ की किस्म का सदस्य पौधा है इसी सहित यह एक पोषक अनाज भी है। आपको बतादें कि किनोवा को प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत भी कहा जाता है। जो कि शरीर में वसा को कम करने, कोलस्ट्रॉल घटाने एवं वजन कम करने के लिए फायदेमंद है। इसकी अच्छी गुणवत्ता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसको पोषण अनाज की श्रेणी में शम्मिलित किया गया है। साथ ही, बाजार में इसकी मांग में काफी वृद्धि हो रही है, जिससे किसानों हेतु खेती भी मुनाफे का सौदा माना जा रहा है।

किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु एवं तापमान

किनोवा का उत्पादन हिमालयीन क्षेत्र से लेकर उत्तर मैदानी क्षेत्रों में आसानी से हो सकती है। सर्दियों का सीजन किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसके पौधे ठंडों में पड़ने वाले पाले को भी आसानी से सहन कर सकते हैं। बीजों को अंकुरित होने हेतु 18 से 22 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। अधिकतम 35 डिग्री तापमान को ही बीज सहन कर सकता है। किसी भी फसल की बेहतर पैदावार के लिए जलवायु एवं तापमान एक मुख्य भूमिका अदा करते हैं।

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किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

किनोवा की कृषि हेतु तकरीबन समस्त मृदा अनुकूल मानी जाती हैं। परंतु, किसान भाई यह अवश्य ध्यान रखें कि भूमि अच्छी जल निकासी वाली होनी अनिवार्य है। साथ ही, भूमि के पीएच मान का सामान्य होना अत्यंत आवश्यक है। भारत में किनोवा का उत्पादन रबी सीजन में किया जाता है।

कौन-सा समय किनोवा की बुवाई के लिए अच्छा माना जाता है

भारत की जलवायु के अनुरूप बीजों की बुआई नवम्बर से मार्च की समयावधि में करनी चाहिए। हालाँकि, विभिन्न स्थानों पर इसकी कृषि जून से जुलाई के माह में भी की जा सकती है।

किनोवा की खेती से पहले बीजों की मात्रा एवं बीज उपचार

अगर हम बात करें किनोवा की खेती के लिए प्रति एकड़ कितने बीज की आवश्यकता होती है। तो आपको बतादें कि किनोवा की खेती के लिए तकरीबन 1 से 1.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है। बीजों की रोपाई से पूर्व बीज उपचार करना बेहद जरुरी होता है। बीज उपचारित होने से अंकुरण के वक्त कोई दिक्कत नहीं होती एवं फसल भी रोग मुक्त हो जाती है। किनोवा की बुआई से पूर्व बीज को गाय के मूत्र में 24 घंटे हेतु डालकर उपचारित करना आवश्यक है।
छत्तीसगढ़ में किसान कर रहे हैं सूरजमुखी की खेती, आय में होगी बढ़ोत्तरी

छत्तीसगढ़ में किसान कर रहे हैं सूरजमुखी की खेती, आय में होगी बढ़ोत्तरी

छत्तीसगढ़ देश का प्रमुख धान उत्पादक राज्य है। जहां धान की खेती सर्वाधिक होती है, इसलिए इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। यहां के ज्यादातर किसान अपने खेतों में धान का उत्पादन करते हैं और उसी से उनकी आजीविका चलती है। लेकिन पिछले कुछ समय से देखा गया है कि राज्य सरकार प्रदेश के किसानों के लिए कई जनहितकारी योजनाएं लेकर आ रही है। जिससे किसानों को फायदा हो रहा है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के द्वारा लाई जा रही जनहितकारी योजनाओं के कारण अब किसान धान की खेती के अलावा अन्य खेती की तरफ भी रुख कर रहे हैं। जिससे किसानों को भविष्य में फायदा होने वाला है। क्योंकि अन्य फसलों के उत्पादन में धान की अपेक्षा किसानों को ज्यादा मुनाफ़ा मिल सकता है। छत्तीसगढ़ शासन ने घोषणा की है कि धान के अलावा अन्य फसलों को उगाने पर सरकार किसानों को सीधे सब्सिडी प्रदान करेगी। सरकार के प्रोत्साहन से प्रभावित होकर प्रदेश के कई किसानों ने अपने यहां सूरजमुखी की खेती प्रारंभ कर दी है। रायगढ़ जिले के पुसौर विकासखण्ड के ग्राम बोन्दा के किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि उन्होंने अपने खेतों में अब धान की जगह पर सूरजमुखी की खेती करना प्रारंभ कर दी है। इसमें उन्हें ज्यादा लाभ हो रहा है। किसान तेजराम गुप्ता ने बताया कि कृषि विभाग के अधिकारियों ने उन्हें यह खेती करने के लिए प्रोसाहित किया है। अधिकारियों ने सूरजमुखी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई है। साथ ही बीज, सूक्ष्म पोषक तत्व एवं कीटनाशक भी उपलब्ध करवाए हैं। इसके लिए किसी भी तरह के पैसे नहीं लिए गए हैं। यह सहायता पूरी तरह से मुफ़्त उपलब्ध करवाई गई है। इसके अलावा उन्होंने 5 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट स्वयं से खरीदकर खेत में डाला है। किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि उन्होंने सूरजमुखी की खेती के लिए कड़ी मेहनत की है। इसके लिए खेत तैयार करने के लिए 3 बार गहरी जुताई की है और दो बार रोटवेटर से खेत तैयार किया है। इसके बाद वर्मी कम्पोस्ट को खेत में मिलाकर बुवाई की है। बुवाई के 20 दिन बाद निराई गुड़ाई का काम किया है और सिंचाई की है। कीटों के नियंत्रण के लिए फसल पर क्लोरोपाईरीफास एवं एजाडिरेक्टिन 1500 पी.पी.एम.का छिडक़ाव किया है। अब फसल की कटाई शुरू हो चुकी है। फसल को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार सूरजमुखी की खेती से अच्छा खासा लाभ होने वाला है।

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किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि सूरजमुखी की फसल उगाने से उनकी आय में तेजी से वृद्धि हुई है। इसके साथ ही फसल चक्र होने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि हुई है। अब राज्य के अन्य किसान भी खेती में वैज्ञानिक विधियों का उपयोग करने लगे हैं जिससे उत्पादन में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है और लोगों की आय भी बढ़ी है। इन दिनों भारत में तिलहन की काफी कमी चल रही है, जिसके चलते तिलहन की जबरदस्त मांग बनी हुई है। भारत अपनी जरूरत का ज्यादातर सूरजमुखी विदेशों से आयात करता है ऐसे में भारत के किसान सूरजमुखी का उत्पादन करके घरेलू मांग की आपूर्ति आसानी से कर सकते हैं।
इस तरह से मूली की खेती करने से किसान जल्द ही हो सकते हैं मालामाल

इस तरह से मूली की खेती करने से किसान जल्द ही हो सकते हैं मालामाल

भारत में ज्यादातर किसान पारंपरिक खेती करते हैं। जिसमें वो रबी, खरीफ, दलहन और तिलहन की फसलें उगाते हैं। इन फसलों के उत्पादन में लागत ज्यादा आती है जबकि मुनाफा बेहद कम होता है। ऐसे में सरकार ने किसानों की सहायता करने के लिए बागवानी मिशन को लॉन्च किया है। जिसमें सरकार किसानों को बागवानी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है ताकि किसान ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा पाएं और उनकी इनकम में बढ़ोत्तरी हो। बागवानी फसलों की खेती में लागत बेहद कम आती है, इसलिए इनमें मिलने वाला मुनाफा ज्यादा होता है। सरकार के विशेषज्ञों का मानना है कि बागवानी फसलों से किसानों की इनकम में बढ़ोत्तरी हो सकती है। अगर किसान भाई मूली की खेती करें तो वो बेहद कम समय में अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं। मूली विटामिन से भरपूर होती है। इसमें मुख्यतः विटामिन सी पाया जाता है। साथ ही मूली फाइबर का एक बड़ा स्रोत है। ऐसे में यह इम्यूनिटी बूस्टर का काम करता है। मूली की खेती भारत में किसी भी मौसम में की जा सकती है।

मूली की खेती के लिए मिट्टी का चयन

सामान्यतः मूली की खेती हर तरह की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है। लेकिन भुरभुरी, रेतली दोमट मिट्टी में इसके शानदार परिणाम देखने को मिलते हैं। भारी और ठोस मिट्टी में मूली की खेती करने से बचना चाहिए। इस तरह की मिट्टी में मूली की जड़ें टेढ़ी हो जाती हैं। जिससे बाजार में मूली के उचित दाम नहीं मिलते। मिट्टी का चयन करते समय ध्यान रखें कि इसका पीएच मान 5.5 से 6.8 के बीच होना चाहिए।

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ऐसे करें जमीन की तैयारी

सबसे पहले खेत की अच्छे से जुताई कर लें। खेत में ढेलियां नहीं होनी चाहिए। जुताई के समय खेत में 10 टन प्रति एकड़ के हिसाब से गोबर की सड़ी हुई खाद डालें।  प्रत्येक जोताई के बाद सुहागा अवश्य फेरें।

मूली की बुवाई

मूली के बीजों की बुवाई पंक्तियों में या बुरकाव विधि द्वारा की जाती है। अच्छी पैदावार के लिए बीजों को 1.5 सेंटीमीटर गहराई पर बोएं। बुवाई के दौरान ध्यान रखें कि पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेंटीमीटर होनी चाहिए और पौध से पौध की दूरी 7.5 सेंटीमीटर होनी चाहिए। एक एकड़ खेत में बुवाई के लिए 5 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है। मिट्टी के बेड पर बुवाई करने पर मूली की जड़ों का शानदार विकास होता है।

मूली की फसल में सिंचाई

गर्मियों के मौसम में मूली की फसल में हर 6 से 7 दिन बाद सिंचाई करें। सर्दियों के मौसम में 10 से 12 दिनों के अंतराल में सिंचाई करना चाहिए। मूली की फसल में जरूरत से ज्यादा सिंचाई नहीं करना चाहिए। ज्यादा सिंचाई करने से जड़ों का आकार बेढंगा और जड़ों के ऊपर बालों की वृद्धि बहुत ज्यादा हो जाती है। गर्मियों के मौसम में कटाई के पहले हल्की सिंचाई करनी चाहिए। इससे मूली ताजा दिखती है। साथ ही खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था करनी चाहिए।

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फसल की कटाई

मूली की फसल बुवाई के 40 से 60 दिनों के बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई पौधे को हाथों से उखाड़कर की जाती है। उखाड़ने के बाद मूली को धोएं और उनके आकार के अनुसार अलग कर लें। इसके बाद इन्हें टोकरियों और बोरियों में भरकर मंडी में भेज दें।

मूली की खेती में इतनी हो सकती है कमाई

भारत के विभिन्न राज्यों में मूली की अलग-अलग किस्मों की खेती की जाती है। जिनका उत्पादन भी अलग-अलग होता है। भारत में मुख्यतः पूसा देसी, पूसा चेतकी, पूसा हिमानी, जापानी सफेद, गणेश सिंथेटिक और पूसा रेशमी किस्म की मूली की किस्मों का चुनाव किया जाता है। ये किस्में बहुत जल्दी तैयार हो जाती हैं। एक हेक्टेयर खेत में मूली की खेती करने पर किसान भाई 250 क्विंटल तक की पैदावार ले सकते हैं। जिससे वो 2 लाख रुपये बेहद आसानी से कमा सकते हैं।
धान की फसल के अंतर्गत बालियां बढ़ाने के लिए दवा एवं तकनीक का इस प्रकार उपयोग करें

धान की फसल के अंतर्गत बालियां बढ़ाने के लिए दवा एवं तकनीक का इस प्रकार उपयोग करें

धान की फसल खरीफ सीजन की एक महत्वपूर्ण फसल है। धान की बालियां बढ़ाने की किसान हर संभव कोशिश करते हैं। इसलिए आज हम आपको इस लेख में इसके लिए दवा व तकनीक की जानकारी देने वाले हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि धान खरीफ सीजन की सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है। हमारे देश के किसान भाइयों के द्वारा धान की फसल सबसे ज्यादा मात्रा में की जाती है। प्राप्त जानकारी के अनुसार, चीन के पश्चात भारत में धान का उत्पादन सबसे ज्यादा होता है। इसी के चलते भारत धान उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर बना हुआ है।

उत्पादन हेतु नवीन तकनीक का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि भारतीय किसानों के द्वारा धान की बेहतरीन पैदावार अर्जित करने के लिए नई तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इसके लिए वह कृषि वैज्ञानिकों की सहायता लेते हैं। यदि आप धान के ज्यादा मात्रा में कल्ले अर्जित करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको कुछ तकनीकों के साथ दवाओं का भी उपयोग करना होगा। परंतु, आपको इस बात का भी ख्याल रखना है, कि आज के वक्त में बाजार में विभिन्न प्रकार की नकली औषधियां आ रही हैं, जिससे फसल पूर्णतय चौपट हो जाती है।

कल्ले फूटने के दौरान फसल को न्यूट्रीशन यानी पोषण की आवश्यकता पड़ती है

यदि आप कृषक हैं, तो इस बात से तो अच्छे से परिचित होंगे कि धान की रोपाई करने के पश्चात उसमें 20-30 दिन के अंदर कल्ले फूटने चालू हो जाते हैं। इस दौरान फसल को ज्यादा मात्रा में पोषक तत्वों की जरूरत होती है। ध्यान रखें की इस दौरान आप फसल में अधिक पानी को न रखें। साथ ही, प्रति एकड़ 20 किलो नाइट्रोजन एवं 10 किलो जिंक की मात्रा डालें।

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धान में रोपाई के 10-15 दिन के बाद पाटा लगा दें

जब आप खेत में धान की रोपाई कर लें, तो आप कम से कम 10-15 दिनों के उपरांत ही इसमें पाटा लगादें। ऐसा करने से छोटी व हल्की जड़ें तीव्रता के साथ विकसित होना शुरू हो जाती है। जब आप खेत के अंदर एक बार पाटा लगा दें, तो फिर दूसरी बार विपरीत दिशा में पाटा लगाएं। ऐसा करने से पौधे में लगने वाले सुंडी कीड़े मर जाते हैं। साथ ही, बाकी विभिन्न प्रकार के रोग लगने की आशंका नहीं होती है।

धान के कल्ले बढ़ाने वाली औषधियां

धान की बाली ज्यादा बढ़ाने के लिए आपको समयानुसार खरपतवारनाशी और निराई-गुड़ाई का कार्य करते रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त आप बाजार में मिलने वाली कुछ दवाओं का उपयोग कर सकते हैं। जैसे कि - खरपतवार के लिए 2-4D, फसल रोपाई के लिए 3-4 दिन में पेंडीमेखली 30 ई.सी 3.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से दें। इस दवा में आप 800-900 लीटर पानी को मिश्रित कर खेत में छिड़काव कर सकते हैं।
आगामी रबी सीजन में इन प्रमुख फसलों का उत्पादन कर किसान अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं

आगामी रबी सीजन में इन प्रमुख फसलों का उत्पादन कर किसान अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं

किसान भाइयों जैसा कि आप जानते हैं, कि रबी सीजन की बुवाई का कार्य अक्टूबर से लेकर नवंबर माह तक किया जाता है। परंतु, उससे पूर्व किसान अपने खेतों में मृदा की जांच एवं संरक्षित ढांचे की तैयारी जैसे आवश्यक कार्य कर सकते हैं। भारत में जलवायु परिवर्तन की परेशानी बढ़ती जा रही है, जिसका सबसे बड़ा प्रभाव खेती पर पड़ रहा है। इस समस्या से निजात पाने के लिये आवश्यक है, कि मिट्टी और जलवायु के हिसाब से फसलें एवं इनकी मजबूत प्रजातियों का चुनाव किया जाये। इसके अतिरिक्त खेत की तैयारी से लेकर खाद-उर्वरकों की खरीद तक कई सारे ऐसे कार्य होते हैं, जिनका समय पर फैसला लेना आवश्यक होता है।

रबी सीजन की बुवाई अक्टूबर से नवंबर के बीच की जाती है

सामान्य तौर पर
रबी सीजन की बुवाई का कार्य अक्टूबर से लेकर नवंबर तक किया जाता है। परंतु, उससे पूर्व किसान अपने खेतों में मिट्टी की जांच और संरक्षित खेती की तैयारी जैसे आवश्यक कार्य कर सकते हैं। इसके उपरांत मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार, खेतों में अनाज, दलहन, तिलहन, चारे वाली फसलें, जड़ और कंद वाली फसलें, सब्जी वाली फसलें, शर्करा वाली फसलें एवं मसाले वाली फसलों की खेती की जा सकती है। यह भी पढ़ें: जानें रबी और खरीफ सीजन में कटाई के आधार पर क्या अंतर है

रबी सीजन की प्रमुख अनाज फसलें

रबी सीजन की प्रमुख नकदी और अनाज वाली फसलों में गेहूं, जौ, जई आदि शम्मिलित हैं। किसान भाई इन फसलों की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं।

रबी सीजन की दलहनी फसलें

रबी सीजन की प्रमुख दलहनी फसलें प्रोटीन से युक्त होती हैं। इसका प्रत्येक दाना किसानों को अच्छी आमदनी दिलाने में सहायता करता है। इन फसलों में चना, मटर, मसूर, खेसारी इत्यादि दालें शम्मिलित हैं।

रबी सीजन की तिलहनी फसलें

तिहलनी फसलें तेल उत्पादन के मकसद से पैदा की जाती हैं, जिनसे किसानों को काफी अच्छी आमदनी होती है। रबी सीजन की प्रमुख तिलहनी फसलों में सरसों, राई, अलसी, तोरिया, सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।

रबी सीजन की चारा फसलें

पशुओं के लिए प्रत्येक सीजन में पशु चारे का इंतजाम होता रहे। इसी मकसद से चारा फसलों की बुवाई की जाती है। रबी सीजन की इन चारा फसलों में बरसीम, जई और मक्का का नाम शम्मिलित है।

रबी सीजन की मसाला फसलें

रबी सीजन के अंतर्गत कुछ मसालों की भी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इनमें मंगरैल, धनियाँ, लहसुन, मिर्च, जीरा, सौंफ, अजवाइन आदि सब्जियां शम्मिलित हैं।

रबी सीजन की प्रमुख सब्जी फसलें

अधिकांश किसान पारंपरिक फसलों को छोड़कर बागवानी फसलों की खेती करते हैं। विशेष रूप से बात करें सब्जी फसलों की तो यह कम समय में ज्यादा मुनाफा देती हैं। रबी सीजन की प्रमुख सब्जी फसलों में लौकी, करेला, सेम, बण्डा, फूलगोभी, पातगोभी, गाठगोभी, मूली, गाजर, शलजम, मटर, चुकन्दर, पालक, मेंथी, प्याज, आलू, शकरकंद, टमाटर, बैगन, भिन्डी, आलू और तोरिया आदि फसलें उगाई जाती हैं।
अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको अलसी की फसल से संबंधित विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। अलसी के फायदों को देखते हुए किसानों की इसकी खेती के प्रति निरंतर चिलचस्पी बढ़ती जा रही है। भारत में अलसी एक महत्वपूर्ण रबी तिलहन फसल साथ ही तेल और रेशे का एक प्रमुख स्रोत भी है। भारत के अंदर अलसी की खेती तकरीबन 2.96 लाख हेक्टेयर भूमि के हिस्से में होती है, जो विश्व के समकुल रकबे का 15 फीसद है। अलसी रकबे की दृष्टि से भारत का दुनियाभर में द्वितीय स्थान है। वहीं, उत्पादन में तीसरा और उपज प्रति हेक्टेयर में आठवाँ स्थान रखता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है। अलसी की भिन्न-भिन्न किस्मो के आधार पर इसका उत्पादन भी अलग होता है। इसकी फसल से 10 से 15 क्विंटल उत्पादन प्रति हेक्टेयर खेत से अर्जित किये जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र प्रमुख अलसी उत्पादक राज्य हैं। भारत में अलसी प्रमुख तौर पर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार राज्यों में पैदा की जाती है। अलसी के हर एक हिस्से का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल सामान्यतः खाने के तौर पर इस्तेमाल में नही लिया जाता है। इसका उपयोग दवाइयाँ निर्मित करने में किया जाता है।

अलसी की खेती के लिए भूमि का चयन

अगर आप अलसी की खेती करने की मन में ठान चुके हैं, तो सबसे पहले आपको अलसी की बिजाई से पूर्व खेत मतलब कि भूमि का चयन करना होगा। बतादें, कि अलसी की बुवाई से पूर्व अपने खेत की मृदा और जल की जांच जरूर कराएं। अलसी की खेती के लिए काली दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। यह मृदा ज्यादा उपजाऊ होती है। साथ ही, जमीन तैयार करते वक्त ख्याल रखें कि जमीन में जल निकास की बेहतरीन व्यवस्था हो। इससे फसल में सिंचाई करने में भी काफी सुविधा रहेगी। साथ ही, फसल का उत्पादन भी काफी बढेगा।

अलसी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

अलसी के लिए सामान्य पीएच मान वाली भूमि अनुकूल मानी जाती है।
अलसी की खेती को ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी की खेती भारत में ज्यादातर रबी सीजन में की जाती है। इस दौरान वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर के बीच होती है। वहां, अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के बेहतर अंकुरण के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और बीज बनने के दौरान तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। अलसी को परिपक्व अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी और शुष्क वातावरण की जरूरत होती है। मतलब कि इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।

अलसी की बिजाई कब की जाती है

किसान भाइयों को यह मशवरा दिया जाता है, कि वे अलसी के बीजों की बिजाई के लिए सिंचित जगहों पर नवंबर एवं असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में बिजाई करें। इसके अतिरिक्त उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले इलाकों में प्रचलित है। धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने के उद्देश्य से धान के खेत में अलसी बोई जाती है। उतेरा पद्धति में धान फसल कटाई के 7 दिन पूर्व ही खेत में अलसी के बीज को छटक दिया जाता है। इससे धान की कटाई से पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। इससे यह लाभ होता है, कि संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार होती है। जल्दी बिजाई करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से बचाया जा सकता है।

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अलसी की प्रमुख उन्नत किस्में

अलसी की उन्नत किस्में कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित की जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों के लिए और सिंचित क्षेत्रों के लिए असली की प्रजातियों को दो हिस्सों में विभाजित किया है, जिन्हें अधिक उत्पादन और जलवायु के अनुरूप उगाया जाता है। सिंचित इलाकों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, पूसा- 2, पी के डी एल- 41, टी- 397 इत्यादि प्रमुख किस्म हैं। इन किस्मों को सिंचित क्षेत्रों के लिए विकसित किया है। इन किस्मों को तकरीबन दोनों ही क्षेत्रों में उगा सकते हैं। वहीं, इनके उत्पादन की बात करें, तो 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो सकती है। असिंचित इलाकों के लिये - शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32, जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73 इत्यादि प्रमुख किस्में है। इन किस्मों को असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए तैयार किया गया है। इन किस्मों में लगने वाले पौधों की लम्बाई औसतन 2 फीट तक होती है। साथ ही, पैदावार 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हो सकती है। उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त भी अलसी की बहुत सारी अन्य उन्नत किस्में भी हैं। जैसे - पी के डी एल 42, जवाहर अलसी दृ 552, जे. एल. एस. - 27, एलजी 185, जे. एल. एस. - 67, पी के डी एल 41, जवाहर अलसी - 7, आर एल - 933, आर एल 914, जवाहर 23, पूसा 2 इत्यादि।

कैसे करें बीजोपचार ?

अलसी के बिजाई दो तरह से की जाती है। पहले ड्रिल विधि के माध्यम से और दूसरी उतेरा (छिडककर) पद्धति से बीजों की बुवाई की जा सकती है। ड्रिल विधि के माध्यम से अलसी की बुवाई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। इस विधि में कतार से कतार के मध्य का फासला 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिये। बीज को जमीन में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये। उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बुआई के लिए अच्छी मानी जाती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बिजाई करनी चाहिए।

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अलसी की खेती के लिए खेत की तैयारी

अलसी की खेती में बीज के अंकुरण एवं उचित फसल बढ़ोतरी के लिए जरूरी है, कि बुआई से पहले खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाए। फसल कटाई के उपरांत खेत में 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गली गोबर की खाद का छिडक़ाव कर मृदा पलटने वाले देशी हल अथवा हैरो से 2 से 3 बार जुताई कर गोबर की खाद को मिलाकर जमीन तैयार करनी चाहिए। इसके उपरांत पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए, जिससे कि जमीन में नमी बरकरार बनी रहे।

खाद किस तरह से डालें

बतादें, कि अलसी की खेती के लिए भूमि की तैयारी के दौरान 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अंतिम जुताई में मृदा में बेहतर ढंग से मिलाकर करें। इसके साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। असिंचित इलाकों के लिए बेहतरीन पैदावार पाने हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. और 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से प्रयोग करें। असिंचित स्थिति में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में पहली सिंचाई के पश्चात करें।

किसान अपनी अलसी की फसल में लगने वाले रोग और कीटों कैसे संरक्षण करें

अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ अथवा गेरुई, उकठा और बुकनी रोग लगता है। इन रोगों की रोकथाम के लिए फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करें। हर 15 दिन के समयांतराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके। रतुआ अथवा गेरुई और बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

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रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआ कीट प्रकोप - अलसी की फसल में फली मक्खी, इल्ली इत्यादि विभिन्न प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी जैसे होते हैं। ये कीट अपने अंडे फूलो की पंखुडियों में देते है, जिससे पौधे में फूलों से बीज नहीं बन पाते हैं। यह कीट उत्पादन को 70 फीसद तक प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

अलसी का तेल कितनी चीजों में उपयोग किया जाता है

अलसी भारत की महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसलों में से एक है। भारत में अलसी की फसल का व्यापारिक उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है। इसकी खेती रेशेदार फसल के तौर पर की जाती है। अलसी के बीजो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा विघमान होती है। परंतु, इसके तेल का इस्तेमाल खाने में न करके दवाइयों को निर्मित करने में किया जाता है। इसके तेल को वार्निश, स्नेहक, पेंट्स को तैयार करने के अलावा प्रिंटिंग प्रेस के लिए स्याही एवं इंक पैड को तैयार करने में किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने और दीपक जलाने में किया जाता है। अलसी का बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। साथ ही, रेशे से लिनेन भी निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। वहींं, खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होने की वजह से इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है।

अलसी का सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों में फायदा मिलता है

अलसी का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। इसके बीज एवं इसका तेल बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम में फायदेमंद है। अलसी विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। इसमें लगभग 33 से 45 प्रतिशत तेल और 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन होता है, यह एक चमत्कारी आहार है। इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड। अलसी के नियमित सेवन किया जाए तो कई प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द आदि कई रोगों से बचा जा सकता है। यह हमारे शरीर में अच्छे कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को बढ़ाता है और ट्राइग्लिसराइड कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने में सहायक होता है। यह हमारे हृदय की धमनियों में खून के थक्के बनाने से रोकता है और हृदय घात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से भी हमारा बचाव करता है। यह एंटीबैक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी है। अलसी में तकरीबन 28 फीसद रेशा होता है और यह कब्ज के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।

फसल कटाई के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें

अलसी की फसल बिजाई के करीब 100 से 120 दिनों पश्चात तैयारी हो जाती है। जब अलसी की फसल पूरी तरह से सूखकर पक जाए तभी इसकी कटाई करनी चाहिए। फसल की कटाई के शीघ्र बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए। इससे इसके बीजों को कोई ज्यादा हानि नहीं होगी। अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन भिन्न भिन्न होता है। प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और असिंचित दशा में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय संचित और असिंचित दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा अर्जित किया सकता है।
रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने से संबंधित विस्तृत जानकारी

रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने से संबंधित विस्तृत जानकारी

महाराष्ट्र भारत का प्रमुख प्याज उत्पादक राज्य है। यहां बड़े स्तर पर प्याज का उत्पादन किया जाता है। यहां वर्ष में तीन बार प्याज की खेती होती है। राज्य में नासिक, पुणे, सोलापुर, धुले और अहमदनगर को प्याज उत्पादन का गढ़ माना जाता है। महाराष्ट्र में इस वक्त रबी सीजन के प्याज की रोपाई चालू हो चुकी है। राज्य में किसान सर्वाधिक प्याज की खेती करते है और यहां एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नासिक के लासलगांव में ही है।

सामान्य तौर पर विभिन्न राज्यो में वार्षिक तौर पर एक ही बार प्याज की खेती की जाती है। परंतु, महाराष्ट्र में ऐसा कुछ नहीं है। प्रदेश में एक वर्ष के दौरान इसकी तीन फसल हांसिल की जाती हैं। यहां खरीफ, खरीफ के बाद तथा रबी सीजन में इसका उत्पादन होता है। महाराष्ट्र में प्याज एक नकदी फसल हैं। यहां के अधिकांश किसान इसकी खेती पर ही आश्रित रहते हैं। रबी सीजन में ही किसान को सर्वाधिक प्याज का उत्पादन मिलता है। 

प्याज के दूसरे सीजन की बिजाई कब की जाती है ?

प्याज के द्वितीय सीजन की बिजाई अक्टूबर-नवंबर के माह में की जाती है, जो कि इस वक्त राज्य में रोपाई चल रही है। यह जनवरी से मार्च के मध्य तैयार हो जाती है। प्याज की तीसरी फसल रबी फसल है, इसमें दिसंबर-जनवरी में बिजाई होती है। वहीं, फसल की कटाई मार्च से लगाकर मई तक होती है। राज्य के समकुल प्याज उत्पादन का 60 प्रतिशत रबी सीजन में ही होता है।

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महाराष्ट्र के इन जनपदों में काफी ज्यादा प्याज का उत्पादन होता है 

महाराष्ट्र के जलगाँव, धुले, अहमदनगर, सतारा, नासिक, पुणे और सोलापुर इन जनपदों में सबसे ज्यादा प्याज की खेती होती है। वहीं, मराठवाड़ा के कुछ जनपदों में कृषक इसकी खेती करते हैं। नासिक जनपद ना केवल महाराष्ट्र में बल्कि संपूर्ण भारत में प्याज उगाने के लिए मशहूर है। भारत में समकुल उत्पादन में से महाराष्ट्र में 37% फीसद प्याज उत्पादन होता है और प्रदेश में 10% फीसद उत्पादन सिर्फ नासिक जनपद में किया जाता है।

प्याज की खेती के लिए कैसी मृदा होनी चाहिए ?

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, प्याज की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। लेकिन, चिकनी, रेतीली, दोमट, गार और भूरी मिट्टी जैसी मृदा में शानदार उपज मिलती है। प्याज की खेती में ज्यादा पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में जल निकासी की बेहतरीन सुविधा होनी चाहिए।

जमीन किस तरह की होनी चाहिए ?

प्याज की खेती करने से पूर्व भूमि तैयार करने के लिए सबसे पहले तीन से चार बार जुताई करनी चाहिए। साथ ही, मिट्टी में जैविक तत्वों की मात्रा बढ़ाने के लिए रुड़ी खाद डालें। इसके पश्चात खेत को छोटे-छोटे प्लॉट में विभाजित कर दें। भूमि को सतह से 15 सेमी उंचाई पर 1.2 मीटर चौड़ी पट्टी पर रोपाई की जाती है।

उर्वरकों का कितना उपयोग करना चाहिए ?

प्याज की फसल को ज्यादा मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। प्याज की फसल में खाद एवं उर्वरक का उपयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए। गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर 20-25 टन की दर से रोपाई से एक-दो माह पूर्व खेत में डालनी चाहिए। 

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प्याज की शानदार किस्में छटाई का समय

भीमा श्वेता: सफेद प्याज की यह किस्म रबी मौसम के लिए पूर्व से ही अनुमोदित मानी जाती है, ये किस्म खरीफ में औसत उपज 18-20 टन जबकि रबी में ये 26-30 टन तक पैदावार देती है।  भीमा सुपर: खरीफ मौसम में इस लाल प्याज किस्म की पैदावार करने के लिए पहचान की गयी है। 

इसे खरीफ सीजन में पछेती फसल के तौर पर भी उगा सकते हैं। ये किस्म 95-100 दिन के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन तकरीबन 20-22 टन प्रति हेक्टेयर तक है।  प्याज की छटाई करने के सही समय की बात करें तो खेतों से प्याज निकालने का समुचित समय तब होता है जब पौधे में नमी समाप्त हो जाती है एवं उसकी गांठ तकरीबन अपने आप ऊपर आने लग जाती है। 

रबी सीजन की गेहूं और सरसों की फसल हेतु पूसा वैज्ञानिकों का दिशा निर्देशन

रबी सीजन की गेहूं और सरसों की फसल हेतु पूसा वैज्ञानिकों का दिशा निर्देशन

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है, ि तापमान को मंदेनजर रखते हुए कृषकों को सलाह दी कि वे पछेती गेहूं की बुजाई अतिशीघ्रता से करें। बीज दर–125 िलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखें। नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश उर्वरकों की मात्रा 80, 40 40 िलोग्राम प्रति हेक्टेयर होनी चाहिए।  पूसा के कृषि वैज्ञानिकों ने रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की खेती के िए निर्देश िए हैं। इसमें बताया गया है, ि जिन कृषकों की गेहूं की फसल 21-25 दिन की हो गई हो, वे आगामी पांच दिनों तक मौसम की संभावना को देखते हुए प्रथम सिंचाई करें। सिंचाई के 3-4 दिन उपरांत उर्वरक की दूसरी मात्रा डालें। तापमान को मंदेनजर रखते हुए कृषकों को सलाह है, कि वे पछेती गेहूं की बुवाई अतिशीघ्रता से करें। बीज दर–125 िलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक रखें। इसकी उन्नत प्रजातियां- एचडी 3059, एचडी 3237, एचडी 3271, एचडी 3369, एचडी 3117, डब्ल्यूआर 544 और पीबीडब्ल्यू 373 हैं।

बीज उपचार अवश्य करें 

बिजाई से पूर्व बीजों को बाविस्टिन @ 1.0 ग्राम अथवा थायरम @ 2.0 ग्राम प्रति िलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। बतादें, कि जिन खेतों में दीमक का संक्रमण हो किसान क्लोरपाईरिफास (20 ईसी) @ 5.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से पलेवा के साथ अथवा सूखे खेत में छिड़क दें। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों की मात्रा 80, 40 40 िलोग्राम प्रति हेक्टेयर होनी चाहिए। 

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सरसों की फसल मुख्य रूप से िरलीकरण का कार्य संपन्न करें 

विलंभ से बोई गई सरसों की फसल में विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण का कार्य करें। औसत तापमान में कमी को मंदेनजर रखते हुए सरसों की फसल में सफेद रतुआ रोग की नियमित ढ़ंग से निगरानी करें। इस मौसम में तैयार खेतों में प्याज की रोपाई से पूर्व बेहतरीन तरीके से सड़ी हुई गोबर की खाद और पोटास उर्वरक का इस्तेमाल जरूर करें। हवा में ज्यादा नमी की वजह आलू एवं टमाटर में झुलसा रोग आने की संभावना है। इस वजह से फसल की नियमित ढ़ंग से निगरानी करें। लक्षण दिखाई देने पर डाईथेन-एम-45 को 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

किसान भाई पत्ती सेवन करने वाले कीटों की निगरानी करें 

बतादें कि जिन कृषकों की टमाटर, फूलगोभी, बन्दगोभी एवं ब्रोकली की पौधशाला तैयार है। वह मौसस को मंदेनजर रखते हुए पौधों की रोपाई कर सकते हैं। गोभी वर्गीय सब्जियों में पत्ती खाने वाले कीटों की लगातार निगरानी करते रहें। अगर संख्या ज्यादा हो तो बी. टी.@ 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी अथवा स्पेनोसेड दवा @ 1.0 एमएल प्रति 3 लीटर पानी में घोल कर स्प्रे करें। इस मौसम में किसान सब्जियों की निराई-गुड़ाई के जरिए खरपतवारों को समाप्त करें, सब्जियों की फसल में सिंचाई करें और उसके पश्चात उर्वरकों का बुरकाव करें।  

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कृषक पराली का कैसे प्रबंधन करें

कृषकों को सलाह है, कि खरीफ फसलों (धान) के बचे हुए अवशेषों (पराली) को जलाएं। क्योंकि इससे वातावरण में प्रदूषण काफी ज्यादा होता है। इससे उत्पन्न धुंध के कारण सूर्य की किरणें फसलों तक कम पहुचती हैं। इससे फसलों में प्रकाश संश्लेषण तथा वाष्पोत्सर्जन की प्रकिया अत्यंत प्रभावित होती है। ऐसा होने से भोजन निर्माण में कमी आती है। इस वजह से फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता प्रभावित होती है। किसानों को सलाह है, कि धान की बची पराली को भूमि में मिला दें, इससे मृदा की उर्वरकता में वृद्धि होती है।